Friday 23 August 2013

कजरी

" कजरी " शब्द सुनाई देते ही मन भावनाओं से ओतप्रोत होने लगता है । 

भाद्रपद के कृष्णपक्ष तृतीया का विशेष महत्व है । इस दिन बेटियाँ अपने मायके कजरी खेलने जाती हैं ।  कुछ दिन पूर्व ही स्त्रियाँ  नदी-तालाब या पोखरे के किनारे की मिट्टी लाकर पिन्ड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं । कुछ दिनों की सेवा के उपरान्त जो पौधे निकलते हैं उन्हें लड़कियाँ बुजुर्गों व भाइयों के कान पर छुआ कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं , जिसे जरई खोंसना कहते हैं । इस मौके पर द्वितीया  वाली रात में रतजगा होता है और कजरी  गाई जाती है । गेंहू , जौ , चना और चावल के सत्तू में घी , मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनते हैं , जिसे चंद्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ देकर खाया जाता है ।

इस दिन शिव-पार्वती की पूजा का विधान है । कुछ जगहों पर सुहागिनें विशेष तौर पर निर्जल उपवास करती हैं  । सांयकाल पूजा में कथा सुनने के बाद माँ पार्वती से अमर-सुहाग लेती हैं और अपने पति की दीर्घ आयु की कामना करती हैं  । चन्द्रमा को अर्घ  देकर सिर्फ एक घूंट पानी पीकर रतजगा करती हैं और भोर में पुन: माँ पार्वती और शिव जी की उपासना करके अपने व्रत का परायण करती हैं ।

इस दिन गाई जाने वाली कजरी का बहुत मोहक स्वरुप है ।" कजरी " शब्द  " कजरा " से लिया गया है । ऐसा कहा जाता है कि मध्य प्रदेश के राजा राय ने विन्ध्याचल देवी की स्तुति करने के लिए कजरी की शुरुआत की थी । उत्तर प्रदेश के बनारस , मिर्ज़ापुर , मथुरा और इलाहाबाद तथा बिहार में भोजपुर का कजरी -गायन में विशेष स्थान है ।

पारम्परिक कजरी की रचना अमीर ख़ुसरो , बहादुर शाह ज़फर , भारतेंदु हरिश्चंद्र , द्विज बलदेव , प्रेमधन , लक्ष्मी सखी रसिक किशोरी , अम्बिका दत्त व्यास , श्रीधर पाठक , बद्री नारायण उपाध्याय , सै.अली  , मो . शाद  ने की है । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी की रचना की है ।

कजरी गीतों में जीवन के अनेक रंग सम्मलित होते हैं । प्रेम , विरह , मिलन ,सुख-दुःख , समाज में व्याप्त कुरीतियाँ आदि का सजीव चित्रण होता है । अमीर ख़ुसरो की कजरी .... " अम्माँ मोरे बाबा को भेजो जी " आँख में आँसू ला देती है .....





कजरी-गायन का संगीत-जगत में अपना अनूठा स्थान है । लोक-गीतों की परम्परा के साथ उपशास्त्रिय-गायन में कजरी का महत्वपूर्ण स्थान है । पं० छन्नू लाल मिश्र , गिरिजा देवी , शोभा गुर्टू , सिद्धेश्वरी देवी , राजन-साजन मिश्र , मालिनी अवस्थी ने कजरी को राष्ट्रिय पहचान दिलाने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थान दिलाया है ।

आज कज्जली तीज का पावन-पर्व है  । आप सबको हार्दिक शुभकामनायें  । कुछ कजरी के लिंक साथ में दिए हैं , सुनिए और आनंद लीजिये ।


Friday 9 August 2013

मैं और मेरी तलाश ........

अम्बर से पाताल तक 
पग-पग पर जहाँ 
तिलिस्म हो ,
गहन कोहरा छाया हो 
जहाँ रिश्तों में जमी 
बर्फ़ का ...
सुनो जरा , अपना ठौर बना लूँ 
मैं ।

अनंत के विस्तार में जहाँ 
खो गए हों शब्द 
अपने ही विन्यास में 
और जा मिलें 
नि:शब्द से ...
ठहरो जरा , अपना पैर जमा लूँ 
मैं ।

रेखाओं से रेखायें कटती हों 
जहाँ रीतापन ही भरता हो 
और दर्पण झूठा लगता हो 
जहाँ जिस्म ही जिस्म कटते हों ...
आओ जरा , अपना दामन भर लूँ 
मैं ।

जहाँ सायों का लगता मेला हो 
यादों का लगता डेरा हो 
जहाँ पसरा घोर अँधेरा हो 
हर चेतन डूबे जहाँ 
अवचेतन में ...
चलो जरा , अपना घर बना लूँ 
मैं ।

Monday 22 July 2013

सावन

कनक भवन ... झूलनोत्सव .... अयोध्या 
हरियाली का , उमंग का , झूले का , चूड़ियों का , मेहन्दी का और कजरी का महीना है सावन । "सावन " शब्द में ही आकर्षण है ।

      सखि देखो सावन आयो
      भिजोयो मोरी सारी , रे हारी ...
      सखि सब मिल मंगल गाओ
      हाथन मां मेहन्दी रचाओ
      अरे रामा , बूंदन पड़त फुहार
      भिजोयो मोरी सारी रे हारी ...

जिधर नज़र डालो धरती हरी-भरी नज़र आती है सावन में । गाँव में तो आज भी आम और कदम्ब के पेड़ पर झूले डाल दिए जाते हैं ।

       अरे रामा सावन मास सुहावन
       सब सखि गावैं काजरी ...
       झूला पड़ा कदम्ब की डारी
       झूलैं सब ब्रज के नर नारी
       अरे रामा गावैं राग मल्हार
       सु दै दै तारी रे हारी ....

मन्दिरों में झूलनोत्सव की महिमा का वर्णन ही असम्भव है । बेले की कलियों और जूही के पुष्पों के अनुपम श्रृंगार से युक्त प्रभु और जानकी जी की छवि देखते ही बनती है ।

        झूला धीरे से झुलाओ सुकुमारी सिया हैं...
        झूला कंचन संजोय , लागी रेशम की डोर
        झोंका धीरे से लगाओ , सुकुमारी सिया हैं ...
        छाई घटा घनघोर , बोले पपीहा मोर
        झूले अवध किशोर , सुकुमारी सिया हैं ...
        झूले सरयू के तीर, पहने रेशम के चीर
        छवि हियरे बसाओ , सुकुमारी सिया हैं ...

खेतों में हरे-हरे धान के बिरवों की सुगन्ध फैली होती है । किसान की खुशी देखते ही बनती है ।

         धान की बगिया महक उठी है
         हरी-हरी लहराए
         दे संदेसवा मीठे-मीठे
         मनवा भर-भर आए ....

ऐसे में काले-काले बादलों से भरा आकाश , गरजते बादल , बरसता सावन और ठन्डी हवा न जाने कितने सपने ले आते हैं ।

           घनन-घनन घन बादर गरजै
           टकरायें घनघोर
           ठन्डी-ठन्डी पवन झकोरे
           नाचन लागे मोर ...
           बरखा आई , बरखा आई
           ऋतु सुहानी आई
           झूल रही है सांवर गोरी
           प्यार के सपने लाई ...

सावन में बेटियों को मायके बुलाने की परम्परा रही है । बेटियाँ मन ही मन दोहराने लगती हैं ...

           बाबा ! मोरे भईया को भेजो रे
           के सावन आया ...

रंग-बिरंगे झूले पेड़ों पर डाले जाते हैं । रस्सी कूदने के लिए गोटा बिनी रस्सी मंगाई जाती है । सतरंगे गिट्टे बांस की रंगीन डलिया में रखे जाते हैं ।

अनरसे , सूतफेनी , सैंधा , फुलौरी की महक से रसोई गमकने लगती है । तरह-तरह के पकवान बनते हैं । पूरा उत्सव का वातावरण छा जाता है ।

आजकल शहरों में तो दिखाई नहीं देता परन्तु गाँवों में आज भी इसका कुछ महत्व शेष है ।

आप सभी को सावन की हरी-भरी शुभकामनाएँ ।

Saturday 6 July 2013

रिश्ते

कुछ नाम होते हैं रिश्तों के ,
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं ....
एक गहरे जा
मन के किसी कोने में
मुस्कुराता है,
दूजा बनके दर्द
असहनीय पीड़ा दे जाता है ।

भीगती हूँ उस
अनकहे दर्द की
बेनाम पीड़ा से ...
सिमटी-सिमटी
उसे जानने की 
कोशिश करती हूँ ।

मौन उसका
मुझे
और भी रूलाता है,
सहमी हुई मैं
उसकी हर आहट पर
अपने खोल में 
जा छुपती हूँ ।

सोचा करती हूँ कि ...
नाम से बेनाम रिश्ता
शायद दर्द ना देता...
पर दर्द तो दर्द ही है
जानते हुए भी
न जाने क्यों
अनजान बन जाती हूँ ।

जो है , वो नहीं है
जो नहीं है , वह है ...
इसे स्वीकार करने की
उधेड़-बुन में
दिन-रात 
एक करती हूँ , और
पीड़ा से
हार जाती हूँ ।

होना
न होना
इन रिश्तों का
क्यों भुलावे में डालता है,
हर पल
यही सोचा करती हूँ ।

Tuesday 4 June 2013

गर्म लू के थपेड़े
ख़िड़की के बाहर भी , और
मन के अन्दर भी
तूफ़ान मचा देते हैं ।

पहरों बहते हैं
सूरज के उगने के साथ
और
चाँद के आने से पहले ।

उनका तो कोई
रूख नहीं होता
दिशा भी नहीं होती ...

मन भी बह जाता है
उन सब गर्म थपेड़ों के साथ 
जो मिले हैं जमाने से
इक उम्र के साथ ।

उनकी भी तो कोई
दिशा नहीं होती
न होता है
किसी रूख का पता ...

साल-दर-साल
पल-पल
हर क्षण 
मौसम के बदलते ही
आ मिलते हैं 
किसी ख़ास दोस्त की तरह ।

बाहर भी
भीतर भी
तपन झेलनी होती है
जिन्दा भी 
रहना ही होता है
हर इक 
ऋतु के साथ ...

Saturday 18 May 2013

लड़की

वह लड़की
आज भी अकेले बैठी
सोचती रहती है
बीते हुए अनेक पलों को ,
पंख लग जाते हैं
उसकी सोच को ।

देखती है ख़्वाब में
जागते हुए
अपना नन्हा -
सुन्दर बस्ता
गुलाबी रंग का
जिस पर बनी थीं
उड़ती हुई
रंग-बिरंगी तितलियाँ ।

वो प्यारा-सा बस्ता
एकान्त में
किताबों से
बातें किया करता ,
उसे भी भाता था 
सफ़र
घर से स्कूल का ।

संगी-साथी 
दोस्त भी
उसके खूब थे ,
जिनके साथ
उसने ख़ोजे
नए रास्ते 
अनेक थे ।

छोटा था
वो पहला सफ़र
पर था बहुत ही 
अच्छा ।

आगे सफ़र
मुश्किल हुए ,
दोस्त भी
अब बदल गए ,
बस्ते का भी रंग
अब 
गुलाबी न रहा ,
तितलियाँ भी
कहीं उड़ गईं .....

सोचती रहती है लड़की ,
सोचती ही रहती है ...........


Tuesday 30 April 2013

गुप्तार घाट के तट से .....

गुप्तार घाट
आज भी
सरयू का जल
संध्या बेला में
छवि
वैदेही की
ले आता है ।

साक्षी हैं
इस घाट के
किनारे पड़ी मिट्टी का
एक-एक कण ,
छोटी-छोटी
बुर्जियों के
इक-इक कंगूरे--
कि खोए रहते हैं
पहरों-पहर
याद में
प्रभु
वैदेही के ।

हर दिन
प्रातःकाल का सूरज
प्रणाम करता है
जगजननी को
और
विदा लेता हुआ
साक्ष्य लिए जाता है
शोक में डूबे
प्रभु के
दर्शन के ।

यहाँ से
गुजरने वाली हवा भी
उदास
निःशब्द बहती है
परन्तु बेबसी अपनी
प्रकट नहीं करती है ।

साक्षी है
धरा
और अम्बर भी
प्रभु की
पीड़ा के ...
दुःख के ...

गवाह है
तारा-मण्डल भी
कि विकल हो
पीड़ा से
विछोह की
प्रभु
तज राजपाट
वैभव इह लोक के
बढ़े चले गए
गहरे जल में
मिलने अपनी
प्रिया से ।

न पीछे किसी का मोह था
न रूदन ही था सुनाई दिया
सारे जग का ,
बढ़े गए ...
चलते गए ...
विलीन हुए
इसी सरयू के
अथाह
गहरे
जल में ।

साक्षी थी धरा ,
साक्षी था अम्बर ...
जो आज भी
उदास
मौन
निःशब्द
प्रतिदिन
सरयू के जल में
वैदेही
और
प्रभु की
युगल-छवि देखते हैं ।

Saturday 27 April 2013

अपना घर .....

जन्म हुआ .... दादा-दादी बहुत रोए ..... पिता की आँख छलक उठी ..... एक सिसकी निकली बस .....

पांच वर्ष की हुई .... माँ को आदेश मिला ... फ़्राक के साथ सलवार पहनाओ अब ..... अवहेलना करी .... कहा गया ... अपने घर जाना , जो चाहे करना ....सिर झुक गया .....

तेरह साल की हुई ..... आदेश हुआ ... सिर पर दुप्पटा ओढ़ कर रहो .... आँख उठा कर देखा .... कहा गया ... भले घर की लड़कियाँ-औरतें नज़र नीची रखती हैं ... अपने घर जाना तो सिर उघाड़े फिरना .... पर्दा हो गया .....

पन्द्रह साल की हुई .... बताया गया ... शहर के नामी लोग हैं , जमींदार घराना है , चार दिन बाद आ रहे हैं चुन्नी ओढ़ाने .... आगे पढ़ने की इच्छा जताई .... कहा गया ... अपने घर जाना तो यूनिवर्सिटी भी घूम आना .... किताब बन्द कर दी .....

सोलह साल की हुई .... लाल चुनरी पहन ली .... कहा गया ... हमारे घर में स्त्रियाँ घूँघट करती हैं .... घूँघट ओढ़ लिया .... पति संग चाय पीने को पूछा ... कहा गया ... हमारे घर में बेशर्मी नहीं चलती .... चाय रसोई में चली गई .....

सत्रह साल की हुई .... बेटी आ गई .... कहा गया ... हमारे कुल की नाक कटा दी .... सिर जमीन में घुस गया .....

उन्नीस साल की हुई .... दूसरी बेटी आ गई .... कहा गया ... जब सब खा लें तब जो बचे इसे दे देना .. हमारा तो वंश ही ख़त्म कर दिया .... भूख मिट गई .....

बीसवां साल इक उजाला ले आया .... बेटा आ गया .... कहा गया ... हमारी मनौती का असर है , कुलदीपक आ गया .... आँख झुक गई .....

साल बीतते गए .... बेटियाँ अपने पति के घर चली गईं .... बेटा पिता का हाथ बटाने लगा .... कहा गया ... हमारा खून है .... नतमस्तक हो गई .....

बेटे का विवाह हुआ ... बहू आई .... चाभियाँ उसे सौंप दी गईं .... कहा गया ... पढ़ी-लिखी है , उचित प्रबन्ध करेगी .... किनारे खिसक गई .....

पोता आया .... ढोल-नगाड़ा बजा .... घर का मान बढ़ाने वाला आ गया .... धरती को देखती रही .....

पोता पढ़ गया , ऊँचे पद पर नौकरी करने लगा .... कहा गया ... पीछे कमरे में रहा करो , मेहमान आते हैं .... कोठरी में चली गई .....

शोर मचा था ... विमान सजा था .... वह अपने घर चली गई थी ... सदा के लिए .... आँख बन्द थी .... मुँह पर सन्तोष था .........

Thursday 25 April 2013

दोस्त

दरख्त है इक
जो सदियों से
दोस्त था मेरा ।

हर इक आहट
मेरी
पहचानता था ।

बिन कहे
शब्द मेरे
पहुँचते थे
उस तक ।

हवा का
रूख
बदल गया ,
वो
जाने कहाँ
गुम गया .....

ढूंढती हूँ
भटकती हूँ ,
ख़ोजती हूँ
उसे ।

हर इक
दर-ओ-दीवार
झांकती हूँ ।

हर इक
चेहरा
अजनबी है ,
बेगाना है ।

वो जो
इक अपना है
गुम गया .....

क्या
तुमने
उसे
देखा है .....

क्या तुमने उसे देखा है ???

Monday 22 April 2013

बातें .....

कबरिस्तान की
 ख़ामोशी 
बातें बहुत करती है ।

हवा वहाँ
हर आतन्तुक का
स्वागत 
अपनत्व से करती है ।

मन सुनता
और बतियाता है
हर उस अनजानी
सरगोशियों से
जो सिरहानों से निकलकर
रूह में
आ बैठी 
फ़ुसफुसाती है ।

ज़िन्दा अगर होता
इक नन्हा सा
दिल ,
बतियाता जरूर
बेले की
अकेली 
उगी
महकती
झाड़ी से ।

रिश्तों की 
सम्बन्धों की ,
यारी - दोस्तियों की
बेशुमार कहानियाँ
सो रहीं हैं
यहाँ
सदियों से ।

कुछ जानी 
कुछ अनजानी
टेढ़ी-मेढ़ी
राहों से
गुज़री है
इसी जमीं से ।

कबरिस्तान की
ख़ामोशी 
बातें 
बहुत करती है .....

Friday 19 April 2013

जीवन

जीवन
इक विषम यात्रा है
आदि -अन्त के
मकड़जाल में
उलझी सी
खोई सी ।

सांस-दर-सांस
उधेड़ना परतें
जीवन की ,
बेमकसद भटकती
अनवरत यात्रा
मुकम्मल 
नहीं होती ।

भटकना-ढूँढना
ताउम्र सत्य को
वन और कन्दराओं में ,
पर होता जो छुपा
कहीं गहरे
हर किसी के
मन में ।

निश्चित-अनिश्चित
का पेन्डुलम 
भटकाएगा ,
धन-ऋण की
पहचान
कतई
नहीं कराएगा ।

अर्थवत्ता
जीवित करने को 
जीवन की ,
सुनना ही होगा
टिक-टिक
गहरे छुपे
मन की ।

पहचानना ही होगा 
उजले-चमकते
सत्य को ,
देवत्व प्राप्ति की
मृगतृष्णा को भूलकर 
अंगीकार करना ही होगा
सच्चे मानस को ।

Thursday 11 April 2013

लहरें

चाँदनी रात में ठंडी रेत पर नदी किनारे बैठी किसना सोच रही थी कि नदी की बनती बिगड़ती लहरों की तरह जीवन भी होता है । कितने रूप पलक झपकते ही बदल जाते हैं ।

अभी कल की ही तो बात थी , जब फ्राक पहने अम्माँ को पुकारती , दौड़ती हुई आ कर उनकी पीठ पर झूल जाती थी ।चूल्हे की मद्धम आँच में रोटी सेंकती अम्माँ दुलार भरी नजरों से देखतीं ..." जल जइहौ बच्ची , जाओ भईया संगै खेलौ । हमै काम करै देओ , बाबू जी अवतै होइहैं ।"

समय ज्यादा नहीं बीता कि विद्यालय गई , तो ... किताबों से दोस्ती कर बैठी । कैसी गजब की बातें लिखी होती हैं । रात- दिन का पता ही नहीं चलता है । किताबों की दुनिया में ऐसी खोई कि कब शकुन्तला मन में गहरे उतर गई , अहसास ही नहीं हुआ । .... बदल गई दुनिया । उसे हर पल दुष्यन्त का इंतजार रहने लगा ।

जाने फिर क्या हुआ जो सब बदल गया । नदी की ऊँची-नीची , बनती-बिगड़ती लहरों की तरह सारे अक्स घुलमिल गए । रंग सारे रंगहीन हो गए । खुश्बू हवा से गायब हो गई । 

रह गई निःशब्द बैठी किसना .......