Tuesday 30 April 2013

गुप्तार घाट के तट से .....

गुप्तार घाट
आज भी
सरयू का जल
संध्या बेला में
छवि
वैदेही की
ले आता है ।

साक्षी हैं
इस घाट के
किनारे पड़ी मिट्टी का
एक-एक कण ,
छोटी-छोटी
बुर्जियों के
इक-इक कंगूरे--
कि खोए रहते हैं
पहरों-पहर
याद में
प्रभु
वैदेही के ।

हर दिन
प्रातःकाल का सूरज
प्रणाम करता है
जगजननी को
और
विदा लेता हुआ
साक्ष्य लिए जाता है
शोक में डूबे
प्रभु के
दर्शन के ।

यहाँ से
गुजरने वाली हवा भी
उदास
निःशब्द बहती है
परन्तु बेबसी अपनी
प्रकट नहीं करती है ।

साक्षी है
धरा
और अम्बर भी
प्रभु की
पीड़ा के ...
दुःख के ...

गवाह है
तारा-मण्डल भी
कि विकल हो
पीड़ा से
विछोह की
प्रभु
तज राजपाट
वैभव इह लोक के
बढ़े चले गए
गहरे जल में
मिलने अपनी
प्रिया से ।

न पीछे किसी का मोह था
न रूदन ही था सुनाई दिया
सारे जग का ,
बढ़े गए ...
चलते गए ...
विलीन हुए
इसी सरयू के
अथाह
गहरे
जल में ।

साक्षी थी धरा ,
साक्षी था अम्बर ...
जो आज भी
उदास
मौन
निःशब्द
प्रतिदिन
सरयू के जल में
वैदेही
और
प्रभु की
युगल-छवि देखते हैं ।

Saturday 27 April 2013

अपना घर .....

जन्म हुआ .... दादा-दादी बहुत रोए ..... पिता की आँख छलक उठी ..... एक सिसकी निकली बस .....

पांच वर्ष की हुई .... माँ को आदेश मिला ... फ़्राक के साथ सलवार पहनाओ अब ..... अवहेलना करी .... कहा गया ... अपने घर जाना , जो चाहे करना ....सिर झुक गया .....

तेरह साल की हुई ..... आदेश हुआ ... सिर पर दुप्पटा ओढ़ कर रहो .... आँख उठा कर देखा .... कहा गया ... भले घर की लड़कियाँ-औरतें नज़र नीची रखती हैं ... अपने घर जाना तो सिर उघाड़े फिरना .... पर्दा हो गया .....

पन्द्रह साल की हुई .... बताया गया ... शहर के नामी लोग हैं , जमींदार घराना है , चार दिन बाद आ रहे हैं चुन्नी ओढ़ाने .... आगे पढ़ने की इच्छा जताई .... कहा गया ... अपने घर जाना तो यूनिवर्सिटी भी घूम आना .... किताब बन्द कर दी .....

सोलह साल की हुई .... लाल चुनरी पहन ली .... कहा गया ... हमारे घर में स्त्रियाँ घूँघट करती हैं .... घूँघट ओढ़ लिया .... पति संग चाय पीने को पूछा ... कहा गया ... हमारे घर में बेशर्मी नहीं चलती .... चाय रसोई में चली गई .....

सत्रह साल की हुई .... बेटी आ गई .... कहा गया ... हमारे कुल की नाक कटा दी .... सिर जमीन में घुस गया .....

उन्नीस साल की हुई .... दूसरी बेटी आ गई .... कहा गया ... जब सब खा लें तब जो बचे इसे दे देना .. हमारा तो वंश ही ख़त्म कर दिया .... भूख मिट गई .....

बीसवां साल इक उजाला ले आया .... बेटा आ गया .... कहा गया ... हमारी मनौती का असर है , कुलदीपक आ गया .... आँख झुक गई .....

साल बीतते गए .... बेटियाँ अपने पति के घर चली गईं .... बेटा पिता का हाथ बटाने लगा .... कहा गया ... हमारा खून है .... नतमस्तक हो गई .....

बेटे का विवाह हुआ ... बहू आई .... चाभियाँ उसे सौंप दी गईं .... कहा गया ... पढ़ी-लिखी है , उचित प्रबन्ध करेगी .... किनारे खिसक गई .....

पोता आया .... ढोल-नगाड़ा बजा .... घर का मान बढ़ाने वाला आ गया .... धरती को देखती रही .....

पोता पढ़ गया , ऊँचे पद पर नौकरी करने लगा .... कहा गया ... पीछे कमरे में रहा करो , मेहमान आते हैं .... कोठरी में चली गई .....

शोर मचा था ... विमान सजा था .... वह अपने घर चली गई थी ... सदा के लिए .... आँख बन्द थी .... मुँह पर सन्तोष था .........

Thursday 25 April 2013

दोस्त

दरख्त है इक
जो सदियों से
दोस्त था मेरा ।

हर इक आहट
मेरी
पहचानता था ।

बिन कहे
शब्द मेरे
पहुँचते थे
उस तक ।

हवा का
रूख
बदल गया ,
वो
जाने कहाँ
गुम गया .....

ढूंढती हूँ
भटकती हूँ ,
ख़ोजती हूँ
उसे ।

हर इक
दर-ओ-दीवार
झांकती हूँ ।

हर इक
चेहरा
अजनबी है ,
बेगाना है ।

वो जो
इक अपना है
गुम गया .....

क्या
तुमने
उसे
देखा है .....

क्या तुमने उसे देखा है ???

Monday 22 April 2013

बातें .....

कबरिस्तान की
 ख़ामोशी 
बातें बहुत करती है ।

हवा वहाँ
हर आतन्तुक का
स्वागत 
अपनत्व से करती है ।

मन सुनता
और बतियाता है
हर उस अनजानी
सरगोशियों से
जो सिरहानों से निकलकर
रूह में
आ बैठी 
फ़ुसफुसाती है ।

ज़िन्दा अगर होता
इक नन्हा सा
दिल ,
बतियाता जरूर
बेले की
अकेली 
उगी
महकती
झाड़ी से ।

रिश्तों की 
सम्बन्धों की ,
यारी - दोस्तियों की
बेशुमार कहानियाँ
सो रहीं हैं
यहाँ
सदियों से ।

कुछ जानी 
कुछ अनजानी
टेढ़ी-मेढ़ी
राहों से
गुज़री है
इसी जमीं से ।

कबरिस्तान की
ख़ामोशी 
बातें 
बहुत करती है .....

Friday 19 April 2013

जीवन

जीवन
इक विषम यात्रा है
आदि -अन्त के
मकड़जाल में
उलझी सी
खोई सी ।

सांस-दर-सांस
उधेड़ना परतें
जीवन की ,
बेमकसद भटकती
अनवरत यात्रा
मुकम्मल 
नहीं होती ।

भटकना-ढूँढना
ताउम्र सत्य को
वन और कन्दराओं में ,
पर होता जो छुपा
कहीं गहरे
हर किसी के
मन में ।

निश्चित-अनिश्चित
का पेन्डुलम 
भटकाएगा ,
धन-ऋण की
पहचान
कतई
नहीं कराएगा ।

अर्थवत्ता
जीवित करने को 
जीवन की ,
सुनना ही होगा
टिक-टिक
गहरे छुपे
मन की ।

पहचानना ही होगा 
उजले-चमकते
सत्य को ,
देवत्व प्राप्ति की
मृगतृष्णा को भूलकर 
अंगीकार करना ही होगा
सच्चे मानस को ।

Thursday 11 April 2013

लहरें

चाँदनी रात में ठंडी रेत पर नदी किनारे बैठी किसना सोच रही थी कि नदी की बनती बिगड़ती लहरों की तरह जीवन भी होता है । कितने रूप पलक झपकते ही बदल जाते हैं ।

अभी कल की ही तो बात थी , जब फ्राक पहने अम्माँ को पुकारती , दौड़ती हुई आ कर उनकी पीठ पर झूल जाती थी ।चूल्हे की मद्धम आँच में रोटी सेंकती अम्माँ दुलार भरी नजरों से देखतीं ..." जल जइहौ बच्ची , जाओ भईया संगै खेलौ । हमै काम करै देओ , बाबू जी अवतै होइहैं ।"

समय ज्यादा नहीं बीता कि विद्यालय गई , तो ... किताबों से दोस्ती कर बैठी । कैसी गजब की बातें लिखी होती हैं । रात- दिन का पता ही नहीं चलता है । किताबों की दुनिया में ऐसी खोई कि कब शकुन्तला मन में गहरे उतर गई , अहसास ही नहीं हुआ । .... बदल गई दुनिया । उसे हर पल दुष्यन्त का इंतजार रहने लगा ।

जाने फिर क्या हुआ जो सब बदल गया । नदी की ऊँची-नीची , बनती-बिगड़ती लहरों की तरह सारे अक्स घुलमिल गए । रंग सारे रंगहीन हो गए । खुश्बू हवा से गायब हो गई । 

रह गई निःशब्द बैठी किसना .......