Thursday 11 April 2013

लहरें

चाँदनी रात में ठंडी रेत पर नदी किनारे बैठी किसना सोच रही थी कि नदी की बनती बिगड़ती लहरों की तरह जीवन भी होता है । कितने रूप पलक झपकते ही बदल जाते हैं ।

अभी कल की ही तो बात थी , जब फ्राक पहने अम्माँ को पुकारती , दौड़ती हुई आ कर उनकी पीठ पर झूल जाती थी ।चूल्हे की मद्धम आँच में रोटी सेंकती अम्माँ दुलार भरी नजरों से देखतीं ..." जल जइहौ बच्ची , जाओ भईया संगै खेलौ । हमै काम करै देओ , बाबू जी अवतै होइहैं ।"

समय ज्यादा नहीं बीता कि विद्यालय गई , तो ... किताबों से दोस्ती कर बैठी । कैसी गजब की बातें लिखी होती हैं । रात- दिन का पता ही नहीं चलता है । किताबों की दुनिया में ऐसी खोई कि कब शकुन्तला मन में गहरे उतर गई , अहसास ही नहीं हुआ । .... बदल गई दुनिया । उसे हर पल दुष्यन्त का इंतजार रहने लगा ।

जाने फिर क्या हुआ जो सब बदल गया । नदी की ऊँची-नीची , बनती-बिगड़ती लहरों की तरह सारे अक्स घुलमिल गए । रंग सारे रंगहीन हो गए । खुश्बू हवा से गायब हो गई । 

रह गई निःशब्द बैठी किसना .......

4 comments:

  1. अच्छा लगा पढ़कर । कुछ विचार ऐसे होते हैं जो हमेशा ही अनकहे रहते है और यही इनकी सार्थकता होती हैं । कुछ न कहना लेकिन उस न कहने में बहुत कुछ छिपा रहता है । शायद आप को पता नहीं मेरे ब्लॉग का नाम भी यही है यानी "कही -अनकही "क्या ये केवल संयोग है ?

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    1. आभार
      कुछ संयोग सुखद होते हैं .....

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  2. हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.

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    1. आभार .
      आशा करती हूँ कि आप सबका आशीर्वाद यूँ ही सदा बना रहेगा .
      सादर ...

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