Friday, 19 April 2013

जीवन

जीवन
इक विषम यात्रा है
आदि -अन्त के
मकड़जाल में
उलझी सी
खोई सी ।

सांस-दर-सांस
उधेड़ना परतें
जीवन की ,
बेमकसद भटकती
अनवरत यात्रा
मुकम्मल 
नहीं होती ।

भटकना-ढूँढना
ताउम्र सत्य को
वन और कन्दराओं में ,
पर होता जो छुपा
कहीं गहरे
हर किसी के
मन में ।

निश्चित-अनिश्चित
का पेन्डुलम 
भटकाएगा ,
धन-ऋण की
पहचान
कतई
नहीं कराएगा ।

अर्थवत्ता
जीवित करने को 
जीवन की ,
सुनना ही होगा
टिक-टिक
गहरे छुपे
मन की ।

पहचानना ही होगा 
उजले-चमकते
सत्य को ,
देवत्व प्राप्ति की
मृगतृष्णा को भूलकर 
अंगीकार करना ही होगा
सच्चे मानस को ।

1 comment:

  1. सुन्दर आत्म-मंथन। बेहतरीन रचना।

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