गुप्तार घाट |
सरयू का जल
संध्या बेला में
छवि
वैदेही की
ले आता है ।
साक्षी हैं
इस घाट के
किनारे पड़ी मिट्टी का
एक-एक कण ,
छोटी-छोटी
बुर्जियों के
इक-इक कंगूरे--
कि खोए रहते हैं
पहरों-पहर
याद में
प्रभु
वैदेही के ।
हर दिन
प्रातःकाल का सूरज
प्रणाम करता है
जगजननी को
और
विदा लेता हुआ
साक्ष्य लिए जाता है
शोक में डूबे
प्रभु के
दर्शन के ।
यहाँ से
गुजरने वाली हवा भी
उदास
निःशब्द बहती है
परन्तु बेबसी अपनी
प्रकट नहीं करती है ।
साक्षी है
धरा
और अम्बर भी
प्रभु की
पीड़ा के ...
दुःख के ...
गवाह है
तारा-मण्डल भी
कि विकल हो
पीड़ा से
विछोह की
प्रभु
तज राजपाट
वैभव इह लोक के
बढ़े चले गए
गहरे जल में
मिलने अपनी
प्रिया से ।
न पीछे किसी का मोह था
न रूदन ही था सुनाई दिया
सारे जग का ,
बढ़े गए ...
चलते गए ...
विलीन हुए
इसी सरयू के
अथाह
गहरे
जल में ।
साक्षी थी धरा ,
साक्षी था अम्बर ...
जो आज भी
उदास
मौन
निःशब्द
प्रतिदिन
सरयू के जल में
वैदेही
और
प्रभु की
युगल-छवि देखते हैं ।