" कजरी " शब्द सुनाई देते ही मन भावनाओं से ओतप्रोत होने लगता है ।
भाद्रपद के कृष्णपक्ष तृतीया का विशेष महत्व है । इस दिन बेटियाँ अपने मायके कजरी खेलने जाती हैं । कुछ दिन पूर्व ही स्त्रियाँ नदी-तालाब या पोखरे के किनारे की मिट्टी लाकर पिन्ड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं । कुछ दिनों की सेवा के उपरान्त जो पौधे निकलते हैं उन्हें लड़कियाँ बुजुर्गों व भाइयों के कान पर छुआ कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं , जिसे जरई खोंसना कहते हैं । इस मौके पर द्वितीया वाली रात में रतजगा होता है और कजरी गाई जाती है । गेंहू , जौ , चना और चावल के सत्तू में घी , मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनते हैं , जिसे चंद्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ देकर खाया जाता है ।
इस दिन शिव-पार्वती की पूजा का विधान है । कुछ जगहों पर सुहागिनें विशेष तौर पर निर्जल उपवास करती हैं । सांयकाल पूजा में कथा सुनने के बाद माँ पार्वती से अमर-सुहाग लेती हैं और अपने पति की दीर्घ आयु की कामना करती हैं । चन्द्रमा को अर्घ देकर सिर्फ एक घूंट पानी पीकर रतजगा करती हैं और भोर में पुन: माँ पार्वती और शिव जी की उपासना करके अपने व्रत का परायण करती हैं ।
इस दिन गाई जाने वाली कजरी का बहुत मोहक स्वरुप है ।" कजरी " शब्द " कजरा " से लिया गया है । ऐसा कहा जाता है कि मध्य प्रदेश के राजा राय ने विन्ध्याचल देवी की स्तुति करने के लिए कजरी की शुरुआत की थी । उत्तर प्रदेश के बनारस , मिर्ज़ापुर , मथुरा और इलाहाबाद तथा बिहार में भोजपुर का कजरी -गायन में विशेष स्थान है ।
पारम्परिक कजरी की रचना अमीर ख़ुसरो , बहादुर शाह ज़फर , भारतेंदु हरिश्चंद्र , द्विज बलदेव , प्रेमधन , लक्ष्मी सखी रसिक किशोरी , अम्बिका दत्त व्यास , श्रीधर पाठक , बद्री नारायण उपाध्याय , सै.अली , मो . शाद ने की है । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी की रचना की है ।
कजरी गीतों में जीवन के अनेक रंग सम्मलित होते हैं । प्रेम , विरह , मिलन ,सुख-दुःख , समाज में व्याप्त कुरीतियाँ आदि का सजीव चित्रण होता है । अमीर ख़ुसरो की कजरी .... " अम्माँ मोरे बाबा को भेजो जी " आँख में आँसू ला देती है .....
कजरी-गायन का संगीत-जगत में अपना अनूठा स्थान है । लोक-गीतों की परम्परा के साथ उपशास्त्रिय-गायन में कजरी का महत्वपूर्ण स्थान है । पं० छन्नू लाल मिश्र , गिरिजा देवी , शोभा गुर्टू , सिद्धेश्वरी देवी , राजन-साजन मिश्र , मालिनी अवस्थी ने कजरी को राष्ट्रिय पहचान दिलाने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थान दिलाया है ।
आज कज्जली तीज का पावन-पर्व है । आप सबको हार्दिक शुभकामनायें । कुछ कजरी के लिंक साथ में दिए हैं , सुनिए और आनंद लीजिये ।
भाद्रपद के कृष्णपक्ष तृतीया का विशेष महत्व है । इस दिन बेटियाँ अपने मायके कजरी खेलने जाती हैं । कुछ दिन पूर्व ही स्त्रियाँ नदी-तालाब या पोखरे के किनारे की मिट्टी लाकर पिन्ड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं । कुछ दिनों की सेवा के उपरान्त जो पौधे निकलते हैं उन्हें लड़कियाँ बुजुर्गों व भाइयों के कान पर छुआ कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं , जिसे जरई खोंसना कहते हैं । इस मौके पर द्वितीया वाली रात में रतजगा होता है और कजरी गाई जाती है । गेंहू , जौ , चना और चावल के सत्तू में घी , मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनते हैं , जिसे चंद्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ देकर खाया जाता है ।
इस दिन शिव-पार्वती की पूजा का विधान है । कुछ जगहों पर सुहागिनें विशेष तौर पर निर्जल उपवास करती हैं । सांयकाल पूजा में कथा सुनने के बाद माँ पार्वती से अमर-सुहाग लेती हैं और अपने पति की दीर्घ आयु की कामना करती हैं । चन्द्रमा को अर्घ देकर सिर्फ एक घूंट पानी पीकर रतजगा करती हैं और भोर में पुन: माँ पार्वती और शिव जी की उपासना करके अपने व्रत का परायण करती हैं ।
इस दिन गाई जाने वाली कजरी का बहुत मोहक स्वरुप है ।" कजरी " शब्द " कजरा " से लिया गया है । ऐसा कहा जाता है कि मध्य प्रदेश के राजा राय ने विन्ध्याचल देवी की स्तुति करने के लिए कजरी की शुरुआत की थी । उत्तर प्रदेश के बनारस , मिर्ज़ापुर , मथुरा और इलाहाबाद तथा बिहार में भोजपुर का कजरी -गायन में विशेष स्थान है ।
पारम्परिक कजरी की रचना अमीर ख़ुसरो , बहादुर शाह ज़फर , भारतेंदु हरिश्चंद्र , द्विज बलदेव , प्रेमधन , लक्ष्मी सखी रसिक किशोरी , अम्बिका दत्त व्यास , श्रीधर पाठक , बद्री नारायण उपाध्याय , सै.अली , मो . शाद ने की है । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी की रचना की है ।
कजरी गीतों में जीवन के अनेक रंग सम्मलित होते हैं । प्रेम , विरह , मिलन ,सुख-दुःख , समाज में व्याप्त कुरीतियाँ आदि का सजीव चित्रण होता है । अमीर ख़ुसरो की कजरी .... " अम्माँ मोरे बाबा को भेजो जी " आँख में आँसू ला देती है .....
कजरी-गायन का संगीत-जगत में अपना अनूठा स्थान है । लोक-गीतों की परम्परा के साथ उपशास्त्रिय-गायन में कजरी का महत्वपूर्ण स्थान है । पं० छन्नू लाल मिश्र , गिरिजा देवी , शोभा गुर्टू , सिद्धेश्वरी देवी , राजन-साजन मिश्र , मालिनी अवस्थी ने कजरी को राष्ट्रिय पहचान दिलाने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थान दिलाया है ।
आज कज्जली तीज का पावन-पर्व है । आप सबको हार्दिक शुभकामनायें । कुछ कजरी के लिंक साथ में दिए हैं , सुनिए और आनंद लीजिये ।